विज्ञान V/s भगवान : क्या सत्य, क्या मिथ्या?

   

क्या हर  चीज़ के पीछे विज्ञान का हाथ है या उसे ईश्वर ने बनाया है और उसके नियम-कानून तय कर रखा है। आधुनिक समय में जैसे-जैसे विज्ञान प्रगति करता जा रहा है और नई-नई वैज्ञानिक खोजें हो रही है तो हमारा विश्वास भगवान से उठता जा रहा है। तो आइए समझते है इसे। हम जब सूक्ष्म विश्लेषण करते है तो पाते है कि जहाँ पर विज्ञान की सीमा समाप्त होती है, वही से ईश्वर की सीमा आरम्भ होती है अर्थात ईश्वर विज्ञान की समझ से परे है और इसे विज्ञान की दृष्टि से देख पाना असंभव है। इसका अर्थ यह बिल्कुल नही है कि जहाँ विज्ञान का ज्ञान है वहाँ ईश्वर का कोई अस्तित्व नही बल्कि ईश्वर सर्वस्व विद्यमान है परन्तु विज्ञान की दृष्टि से देखने के बाद अधिकतम लोग  ईश्वर की परिकल्पना को नकार देते है।  

विज्ञान की सीमा कहाँ तक है? हमारे सौरमण्डल, हमारी दुग्धमेखला आकाशगंगा, आस-पास की कुछ आकाशगंगा तक ही न। आज भी ब्लैकहोल के रहस्य अनसुलझे है। ब्रह्मांड की उत्पत्ति को लेकर अभी भी विवाद है। बस एक अनुमान लगाया जाता है कि ब्रह्मांड का निर्माण 'बिगबैंग थ्योरी' यानी 'महाविस्फोट सिद्धांत' के अनुरूप हुआ है परंतु ब्रह्मांड के आकार, विस्तार, संरचना और गति के अधिकतर सवालों के सामने विज्ञान चुप्पी साध लेता है।विज्ञान के इतने प्रगति करने के बावजूद मानव ब्रह्मांड का सिर्फ 4 प्रतिशत ही देख पाता है और उन्ही से जुड़े रहस्यों को समझने में व्यस्त है पर बाकी का 96 प्रतिशत हिस्सा तो हमारी नजरों और सोच दोनों से परे है। 

विज्ञान की अपनी सीमाएं है। वो प्रकृति को समझा तो सकता है परंतु नियंत्रित नही कर सकता है।  न सूर्य को उदय होने से रोक सकता है और न अस्त होने से। ऐसे ही अनेक उदाहरण देखे जा सकते है। भगवान को जानने का बस एक ही माध्यम है और वो विज्ञान नही बल्कि 'आध्यात्म' है। आध्यात्म के अनुसार, किसी भी वस्तु की तीन परतें है । सबसे पहली परत है - कण, जिसे अणुओं, परमाणुओं और फिर इलेक्ट्रॉन, प्रोटोन और न्यूट्रॉन में तोड़ा जा सकता है। इसी परत के कारण ही किसी भी पदार्थ का भौतिक स्वरूप निर्धारित होता है  और फिर  हम पदार्थ के भौतिक रूप को अपनी नंगी आँखों से देख पाते है। दूसरी परत है- ऊर्जा। जिससे यह पदार्थ बना है। इसे हम सिर्फ महसूस कर सकते है और आस्तिक हो या नास्तिक इस ऊर्जा को नकार नही सकता है। पदार्थ को नष्ट तो किया जा सकता है परंतु ऊर्जा को नही और महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन का ऊर्जा का सिद्धांत भी यही कहता है - ऊर्जा का न तो निर्माण किया जा सकता है और न ही नष्ट। ये केवल एक रूप से दूसरा रूप धारण कर लेती है। 

अतीत के वैज्ञानिकों का कहना था कि केवल पदार्थ ही होते है और कुछ भी नहीं। फिर विज्ञान ने प्रगति की । पदार्थ का पोस्टमार्टम आरंभ हुआ और तोड़ते-तोड़ते यह ज्ञात हुआ कि अणु कई परमाणुओं और परमाणु इलेक्ट्रॉन, प्रोटोन और न्यूट्रॉन कणों से मिलकर बना है।  हाल में कण के विद्यमान हिग्स बोसोन कण, जिसे गॉड पार्टिकल भी कहते है और हिग्स फील्ड की खोज की गई। यह हिग्स फील्ड भी एक ऊर्जा क्षेत्र है। तीसरी और अंतिम परत है 'चेतना' की। ऊर्जा और चेतना आपस में जुड़े है। इसी परम चेतना को ही भगवान कहा जाता है। बतौर उदाहरण, आप अपने शरीर में प्रवेश करें तो पायेंगे कि वहाँ भी ये तीन परते हैं। सतह पर आपका शरीर है जो पदार्थ है। उसके भीतर प्राण की, जीवंत उर्जा की धाराएं बहती हैं। इस ऊर्जा बिना, शरीर लाश मात्र हो जाता है। गहरे, और गहरे में प्रवेश करें तो यह ऊर्जा भी चेतन सत्ता के कारण है। जैसे ही इसका कनेक्शन ऊर्जा से हटा, शरीर ख़त्म। 

केल्विन और नीडहम जैसे वैज्ञानिक भी भगवान के अस्तित्व को मानते है फिर भी आपके मन में भी भगवान से सम्बंधित कुछ प्रश्न आते होंगे। जैसे-

1. भगवान कैसे दिखते है?
भगवान निराकार है अर्थात इसका कोई रंग-रूप या आकार नही है। अधिकतर धर्म बस अपनी-अपनी सुविधानुसार मूर्त्त रूप देकर इन्हें पूजता है। हम उसे सिर्फ अनुभव कर सकते है।

2. भगवान है और अगर उसने ही इस संसार को बनाया है तो वो इस संसार के लोगों की सारी दुखों को क्यों नही दूर करता है?
भगवान ने हमारी रचना करके हमें छोड़ दिया है। शरीर का विकास तो स्वतः ही होता है परंतु बुद्धि का हमें स्वयं अपने प्रयासों से करना पड़ता है। हमारे सारे दुखों का अंत बुद्धि या चेतना के विकास में छिपा है। दुनिया की कोई भी वस्तु अच्छी या बुरी नही है बल्कि मनुष्य की बुद्धि उसे अच्छी या बुरी बना लेती है। और इस तरह से दुनिया में एक संतुलन बना रहता है।

3. ईश्वर निराकार है तो फिर क्या मूर्ति-पूजा करने वाले मूर्ख है,अज्ञानी है?
हमने पदार्थ के भीतर जिस ऊर्जा और चेतना के अस्तित्व की बात की हैं, उस तक पहुंच पाना असंभव तो नही पर अत्यंत कठिन अवश्य है। शायद इसका सबसे बड़ा कारण आम आदमी के इस व्यस्त जीवन में समय और संयम का अभाव है। उसके पास इतना समय ही नही कि वह अपने भीतर ही छिपे पहले ऊर्जा और तत्पश्चात चेतना की खोज कर सके। वास्तव में यह खोज उनकी नही बल्कि स्वयं की होती है क्योंकि ऊर्जा और चेतना तो सदैव नियत स्थान पर ही होते है।
अब जब लोगों के पास समय का अभाव है तो वे इसके विकल्प की तलाश करते है और वह विकल्प 'मूर्ति-पूजा' पर आकर समाप्त होती है। मूर्ति-पूजा के रूप में उसे ईश्वर की पूर्व-कल्पित तैयार रूप-रेखा मिल जाती है और साथ ही मिल जाता है मूर्ति-पूजा से सम्बंधित तैयार विधि-विधान, वह भी बिना अपना ज्यादा समय गवाएं बिल्कुल सरल रूप से। अंततः अधिकतर लोग 'मूर्ति-पूजा' की ओर परिणत हो जाते है।


और भी कई प्रश्न आते होंगे आपके मन में। मैंने तो अपने अनुभव को आपके सामने रख दिया है। आपको क्या लगता है 'भगवान है या नही' या सिर्फ विज्ञान ही और अभी बाल्यावस्था में होने की वजह से कई सवालों का जवाब नही दे पाता है?

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