पुस्तक समीक्षा : जिस लाहौर नही देख्या ओ जम्याइ नई (नाटक)

"जिस लाहौर नही देख्या ओ जम्याइ नई" असगर वज़ाहत का नाटक है जिसका 'जिन लाहौर नहीं वेख्या' के नाम से भारत, पाकिस्तान, हंगरी सहित कई देशों में मंचन किया
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पुस्तक समीक्षा

 "जिस लाहौर नही देख्या ओ जम्याइ नईअसगर वज़ाहत का नाटक है जिसका 'जिन लाहौर नहीं वेख्या' के नाम से भारत, पाकिस्तान, हंगरी सहित कई देशों में मंचन किया जा चुका है।

वास्तव में "जिस लाहौर नही देख्या ओ जम्याइ नई" शीर्षक नाटक के मुख्य पात्र माई के कथन से लिया गया है जिसका अर्थ है " जिसने लाहौर नही देखा, उसका जन्म ही नही हुआ है।" 

बुढ़िया माई जो अपने बेटे रतन और परिवार के अन्य लोगों के साथ लाहौर के एक हवेली में रहती है। अचानक से भारत-पाकिस्तान विभाजन की घोषणा हो जाती है और इस दौरान लोगों का कत्लेआम शुरू हो जाती है। माई भी इस त्रासदी में अपने परिवार को खो बैठती है। सिकंदर मिर्ज़ा भी हिंदुस्तान से पाकिस्तान का रुख करते है और लाहौर में उन्हें रहने के लिए यह हवेली अलॉट की जाती है। आरम्भ में वे लोग हवेली में माई की मौजूदगी पसन्द नही करते हैं और उन्हें वहाँ से हटाने के कई प्रयास भी करते है। परन्तु माई का हृदय काफी विशाल होता है और वह हर समय हर किसी की मदद और सेवा के लिए तत्पर रहती हैं और इस तरह अपने मिलनसार स्वभाव के कारण सिकंदर मिर्ज़ा और बाकी अन्य मुसलमानों से हिलमिल जाती है। उसे अपने लाहौर से इतना प्रेम होता है कि वो इसे दुनिया का श्रेष्ठ स्थान बताती है और कहती है कि जिसने लाहौर नही देखा उसने जन्म ही नही लिया अर्थात संसार में कुछ भी नही देखा। सिर्फ माई ही नही बल्कि उनके मोहल्ले में आए सभी नए लोगों को अपने वतन और शहर की याद आती हैं और उसे अपना शहर सबसे अच्छा मालूम पड़ता है।

हर समाज में कुछ धर्म के तथाकथित ठेकेदार रहते है चाहे वह धर्म कोई भी हो। ऐसे लोग धर्म की आड़ में स्वार्थसिद्धि की कामना लिए रहते है और दूसरों का अहित करके उसे पूरी करते हैं। भारत-पाकिस्तान विभाजन भी धर्म के ऐसे तथाकथित ठेकेदारों के राजनैतिक स्वार्थ का ही परिणाम था जिसका खामियाजा  हर किसी को भुगतना पड़ा चाहे वो हिन्दू हो, मुस्लिम हो या सिख हो। इस विभाजन ने कईयों के घर उजाड़ डालें, उनसे उनका परिवार छीन लिया। भारत में मुसलमानों के साथ ज्यादती की गई और पाकिस्तान में हिंदुओं के साथ। हाँ, भारतीय सरकार अवश्य ही धर्मनिरपेक्ष की अवधारणा में विश्वास रखने वाली थी और विभाजन के पक्ष में नही थी परन्तु मुस्लिम लीग धार्मिक कट्टरता का समर्थक था। 

 लाहौर में भी पहलवान नाम का मुस्लिम लीगी नेता था जो ख़ुद को इस्लाम और मुसलमानों का रक्षक बताता था। उसे माई का सिकंदर मिर्ज़ा के यहाँ रहना पसंद नही था और इसलिए सदैव उसे वहाँ से हटाने का प्रयास करता था। परंतु प्रेम के रिश्ते जात-पात, धर्म-मज़हब, रंग-रूप नही देखते है। सिकंदर मिर्ज़ा के परिवार और पूरे मोहल्ले के साथ माई का रिश्ता कुछ ऐसा ही बन गया था। सिकंदर मिर्ज़ा और उसके परिवार को एक हिन्दू को घर में स्थान देने पर कई लोगों द्वारा सवाल किए जाते और उन्हें काफ़िर कहा जाता परंतु वे सब सहन कर जाते और माई को घर में ही रखना चाहते हैं।

जब इस बात का पता माई को चलता है तो उन्हें काफी दुःख होता है और वह घर छोड़कर भारत जाने के लिए निकल पड़ती है ताकि उनकी वजह से सिकंदर मिर्ज़ा के परिवार को आगे कोई तकलीफ़ न उठानी पड़ी।

क्या माई भारत पहुँच पाती है? क्या सिकंदर मिर्ज़ा और अन्य लोग उन्हें जाने से रोक पाते हैं? क्या होता है आगे, यह जानने के लिए आपको यह नाटक "जिस लाहौर नही देख्या ओ जम्याइ नई"  पढ़ना पड़ेगा।

कहानी का अंत मुस्लिम धर्म के ठेकेदारों द्वारा लाहौर के  मुस्लिम धर्म के सबसे प्रतिष्ठित व्यक्ति के अंत के साथ होती है। पूरा नाटक धार्मिक सद्भाव का संदेश और आग्रह लेकर प्रस्तुत होता हैं । धर्म कोई भी हो, चाहे हिन्दू हो या मुस्लिम हमेशा दूसरे धर्म और धर्मावलंबियों का सम्मान करने की बात करता हैं। हरेक धर्म का आंतरिक या मूल तत्व प्रेम, भाईचारा और सद्भाव ही होता है, बाह्य तत्व भले ही अलग हो। 


लेखक असगर वज़ाहत और विवादों में नाटक

असग़र वज़ाहत (लेखक)


असगर वज़ाहत का जन्म उत्तर प्रदेश के फतेहपुर में वर्ष 1946 में हुआ यानी कि भारत की स्वतंत्रता, पाकिस्तान निर्माण और विभाजन की त्रासदी से 1 वर्ष पूर्व। शुरू से ही हिंदी से काफी लगाव रहा और ये दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के अध्यक्ष भी रह चुके है।

वैसे तो मूल रूप से यह एक कहानीकार हैं परंतु जब ये हिंदी साहित्य के अन्य विधाओं में हाथ आजमाते हैं तो उत्कृष्ट श्रेणी की रचनाएं ही निकलकर सामने आती है। यह नाटक "जिस लाहौर नहीं देख्या ओ जम्याइ नई" भी उसका ही एक उदाहरण हैं। वैसे यह नाटक विवाद का भी विषय रह चुका है। जब पाकिस्तान में इसका मंचन किया गया तो इसे पाकिस्तान में प्रतिबंधित कर दिया गया। सरकार को इस बात से आपत्ति हैं कि इस नाटक के आखिर में मौलाना का क़त्ल कर दिया जाता है। शायद पाकिस्तानी सरकार इस नाटक के मूल भाव तक पहुँचने में असमर्थ रही होगी इसलिए इसे वहाँ प्रतिबंधित कर दिया गया। सरकार को इस बात से भी आपत्ति थी कि यह नाटक एक भारतीय लेखक के द्वारा कलमबद्ध की गयी है। हालाँकि यह नाटक पाकिस्तानी अवाम और पाकिस्तानी मीडिया द्वारा पसंद की जाती है।


जिस लाहौर नहीं देख्या ओ जम्याइ नई का PDF 

इस नाटक का पीडीएफ डाउनलोड करने लिए आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

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