पता नही मुझे की मैं अपने मन में उमड़ते विचारो को कलम के माध्यम से उतार पाउँगा या नही पर कोशिश पुरजोर कर रहा हूँ।
मैन अभी तुरंत एक हिंदी फिल्म देखी। वह फ़िल्म अपने आप में पूर्णतः को सँजोए हुए थी। आखिर फ़िल्म तभी पूर्ण मानी जाती है जब वह दर्शक के मन मे अपनी अमिट छाप छोड़ दे। वह फ़िल्म थी- "खट्टा-मीठा"। जैसा नाम, वैसी ही फ़िल्म। यह फ़िल्म किसी महान हस्ती या किसी और कि नही, बल्कि एक आम आदमी के जीवन के खट्टे- मीठे पलो को संजोने और दर्शको तक पँहुचाने का सफल प्रयास है। इस फ़िल्म के मुख्य पात्र की भूमिका में है अभिनेता अक्षय कुमार जो कि एक आम आदमी का किरदार निभा रहे है। यह आम आदमी अपने करियर में असफ़लता के कारण पैसे नही कमा पाता और काफी प्रयास के बावजूद बहन की शादी के लिए दहेज का इंतजाम नही कर पाता। अंततः उसके कुछ रिश्तेदार उसकी बहन की शादी एक गंदे कमीने व्यक्ति से करा देते है (इस "गंदे" शब्द का अर्थ बयाँ नही किया जा सकता) । बेचारी बहन अपने पति और पति के दोस्तो के हवस का शिकार बन जाती है और अन्ततः इस असीम पीड़ा को झेलने के बाद आत्महत्या कर लेती है। बेचारा वो आम आदमी अर्थात अक्षय कुमार पैसे के हाथों मजबूर हो जाता है। आखिर वो करता भी तो क्या? एक आम आदमी के पास कितनी शक्ति है, ये तो आप सभी जानते है। मेरे नजर में सिर्फ एक "मताधिकार" की पर आज का महाभ्रष्ट नेता उस शक्ति का भी दुरुपयोग कर लेता है और उसके बाद तो वो आम आदमियों के जीवन के साथ खेलना भी बखूबी जानता है।
तो क्या हम वास्तव में लोकतांत्रिक शासन में जी रहे है? बिल्कुल नहीं। जिस लोकतंत्र में लोक अर्थात लोग ही अपने अधिकारों का प्रयोग खुलकर न कर पाए तो वह लोकतांत्रिक कैसे हो सकता है।
नीचे में मैं पूरी फ़िल्म डाल रहा हूँ, आप खट्टा-मीठा फ़िल्म HD क्वालिटी में देख सकते है-
