खून की प्यास : सपना था या हकीकत❓


मैं अपने गांव की गलियों और सड़कों पर बेतहाशा दौड़ा जा रहा था। मेरे पीछे कुछ कट्टर सफ़ेदपोश चाकू और तलवार लिए दौड़ रहे थे। मैं भय में डूबा था, पसीने से तरबतर, बदहवाश-सा। कुछ भी सुध नहीं थी कि किधर दौड़ा जा रहा हूँ। जो भी रास्ता आंखों के सामने नजर आता, उधर ही दौड़ पड़ता।

ईश्वर की कृपा थी कि आखिरकार मुझे एक घर दिखा जिसका दरवाजा खुला था। मैं उस घर में घुस गया और दरवाजा बंद कर लिया। घर खाली था। पता नही यह घर किसका था - किसी हिन्दू का या किसी मुसलमान का। अच्छा है कि घरों का धर्म नहीं होता और न ही होती है इंसानों जैसी जुबान। वरना बनने से पहले ही टूट जाते कई घर, जैसे टूट रहा है आज का इंसान।

मैं चुपचाप वहाँ पड़े एक खाट पर लेट गया। काफी थक गया था इसलिए लेटते ही आंख लग गई। कुछ समय बाद मेरे कानों में कुछ अस्पष्ट सी आवाजें आनी शुरू हो गई। मैंने चौंककर आंखे खोली।

हे ईश्वर! अचानक से एक तलवार मेरे पेट की नाभि में घुसी और छाती तक खींच ली गई। मैं असहनीय पीड़ा से तिलमिला उठा। मेरे शरीर से खून के फ़व्वारे निकल पड़े। धुंधली पड़ चुकी दृष्टि से मैंने देखा - वहाँ सफ़ेद कुर्ते और टोपी में कई लोग खड़े थे और उनमें से एक के हाथ में वो तलवार थी जो अब मेरे खून से प्यास बुझाने के बाद शांत पड़ गई थी।

   अचानक किसी ने मुझे झझकोरा। मेरी तंद्रा टूटी तो बगल में खड़ी मां मुझसे बोल पड़ी - 'काफ़ी देर से सोए हुए हो। चलो, उठो और कुछ खा-पी लो।' मैंने स्वयं से सवाल किया - अरे! क्या मैं सिर्फ सपना देख रहा था? नही-नही, यह कैसे हो सकता है। उस दर्द को मैं अभी तक महसूस कर पा रहा हूँ।

लेटे-लेटे मैंने अपनी शर्ट और बनियान दोनों ऊपर किए और जो देखा उसने मेरे सपने को हक़ीक़त क़रार दे दिया। मेरे बदन पर ठीक वैसा ही ज़ख्म भरने के बाद एक लंबा-सा निशान बना था।

क्या मैं कई दिनों से या शायद कई महीनों तक यूँ ही बेहोश पड़ा रहा। मैंने उठकर देखा कि मैं अभी अपने गाँव के उसी घर में था, जहाँ मैं पहले रह रहा था। डर की एक लहर मेरे बदन में दौड़ पड़ी और मैं पूरी तरह सिहर उठा। मैं अपने कमरे से बाहर निकला और आँगन में आकर देखा। सबकुछ सामान्य लग रहा था। माँ रसोईघर के किसी काम में व्यस्त थी और छोटी बहन कुर्सी पर बैठकर ऊंघ रही थी।

   मैं अपने भीतर इतना साहस भी नहीं जुटा पा रहा था कि उस घटना की वास्तविकता और शरीर पर पड़े निशान के बारे में अपनी मां से कुछ पूछ सकूँ। कुछ दिन यूँ ही बीत गए। अचानक एक दिन हमारा एक पड़ोसी हमारे घर आया और कहा कि हिन्दू-मुस्लिम दंगा फिर से शुरू हो चुका है। मैं और मेरा पूरा परिवार डर गया।

 फिर उस आदमी ने मुझसे कहना शुरू किया कि बेटे, ये लोग सिर्फ नौजवान लड़को का खून बहा रहे है इसलिए तुम भाग जाओ और जाकर छिप जाओ। अल्लाह तुम्हारी हिफाज़त करेगा। कुछ समय के लिए तो मेरा दिमाग सुन्न पड़ चुका था फिर किसी तरह मैंने अपने आप को संभाला और उसी भले आदमी से पूछा - "कहाँ छिपूंगा मैं?"

उसने कहा - "हमारे घर से कुछ दूर पर जो पावरोटी बनाने का कारखाना है, उसी में जाकर छिप जाओ। वह कारखाना ऐसे भी सुनसान पड़ा है और मेरा बेटा भी वही छिपा हुआ है। कुछ खाने के लिए ले लो और जाकर छिप जाओ।"

मेरी माँ ने जल्दी से पराठों की एक पोटली बांध दिया, जो उन्होंने मेरे खाने के लिए बनाया था। मैंने पराठों की पोटली ली और दौड़कर घर से बाहर निकल आया। मैं अपने परिवार से कुछ भी न कह सका क्योंकि मन में अभी भी भय और असमंजस की मिश्रित स्थिति बनी हुई थी और मेरी हिम्मत नही हुई, ठीक वैसे ही जैसे मैं अपने सपने और घाव के निशान के बारे में कुछ भी न पूछ पाया था।

मैं फिर से पागलों की तरह परांठे की पोटली अपनी छाती से लगाये हुए दौड़ता हुआ अपनी गली से निकला और उसी गली की ओर मुड़ा जिधर वह करखाना था। कारखाने के पास पहुँचा तो देखा कि दरवाज़ा बन्द है। चूँकि मैं पास ही रहता था तो मुझे उस कारखाने के पिछले दरवाजे के बारे में पता था।

मैं उस कारखाने के पीछे की ओर गया। पीछे का दरवाज़ा भी बन्द था पर खिड़की थोड़ी-सी खुली थी और उससे कोई सफ़ेदपोश बाहर की ओर झाँक रहा था। शायद बाहर की स्थिति का जायज़ा लेने की नाक़ाम कोशिश कर रहा था।

जब उसने मुझे देखा तो पहले वह डर गया परन्तु जब उसकी नज़र मेरे हाथ के परांठे वाली पोटली पर पड़ी तो उसने मेरी आँखों में देखा। मेरी आँखों में तैरता हुआ भय स्पष्ट देखा जा सकता था। मैंने इशारे से अन्दर आने की गुजारिश की। कुछ सेकेंड रुककर उसने पीछे का ही दरवाज़ा खोला और मैं अंदर प्रवेश कर गया।

मेरे अंदर आते ही उसने झट से कुंडी लगाकर दरवाज़ा बंद कर दिया। अंदर काफ़ी अंधेरा था। शायद अंदर कई लोग थे। बस खिड़की के दोनो पाटों के बीच बने एक सुराख़ से बिंदुनुमा सूरज की रोशनी निकलकर अंदर फ़र्श पर पड़ रही थी। शायद यह सुराख़ जानबूझ कर बन्द नही की गयी थी।
 यह आशा  किरण थी अंदर के लोगों के लिए। यह रोशनी ही अंदर बैठे लोगों में यह विश्वास जगा रही थी कि वे अभी ज़िंदा है वरना इस घुप्प अंधेरे में तो अपने हाथ को हाथ भी नही सूझ पाता।

 मैंने अंदाजा लगाया - अंदर कई सारे लोग थे। कुछ हिन्दू, कुछ मुसलमान। हमारे 'धर्म' तो अलग थे परंतु सब के चेहरे पर 'डर' समान ही था। डर का कोई धर्म नही होता है और न ही कोई धर्म होता है डर फैलाने वालों का। 

मेरे वहाँ आने पर किसी ने भी विरोध नही किया। शायद इस डर ने उन्हें हिन्दू-मुसलमान से कई बढ़कर इंसान में तब्दील कर दिया था। मैं भी एक कोने में जाकर दुबक गया।

अंदर आती सूरज की रोशनी धीरे-धीरे धीमी पड़ चुकी थी। धीमी पड़ती उस रोशनी से हमें गोधूलि बेला होने का स्पष्ट संकेत मिल रहा था।

सुबह से मैं भूखा था और शायद अन्य लोग भी। इस ज़िंदगी की जंग जारी रखने के लिए और जीतने के लिए भूख मिटाना जरूरी था। आखिर 'बाहर की आग' से भी ज़्यादा खतरनाक होती है 'पेट की आग'। 

मैंने अपनी परांठे वाली पोटली खोली और मेरा अनुसरण करते हुए कई सारे लोगों ने अपनी-अपनी खाने की पोटलियाँ खोल कर खाना शुरू कर दिया। परन्तु वहाँ ऐसे भी कई लोग थे जिनके पास खाने को कुछ नही था।

मेरे बगल में बैठा एक इंसान, जिसके पास भी खाने को कुछ नही थे, मेरे खाने की ओर कातर नज़रों से देख रहा था। न जाने कौन किन परिस्थितियों में यहाँ पहुँचा होगा। मैंने अपनी पोटली उस इंसान की ओर बढ़ा दिया। उसने एक परांठा उठा लिया। परांठे का एक कौर डाले ही वो कभी मेरे खाने की ओर देखता तो कभी मेरी ओर। शायद उसका हृदय कृतज्ञता से भर उठा था और आंसुओं के रूप में निकलकर चेहरे पर झलक रहा था।

फिर क्या था, सारे लोगों ने एक-दूसरे के साथ बाँटकर खाना खाया। अब वहाँ कोई हिन्दू-मुसलमान नहीं थे, थे तो बस इंसान। मुझे कारखाने की यह दुनिया, कारखाने की बाहर वाली दुनिया से कई गुना अच्छी लग रही थी। यहाँ कोई भी किसी के खून का प्यासा न था। ईर्ष्या, नफ़रत, द्वेष और लालच से परे इस दुनिया में सिर्फ प्रेम और अपनत्व था।

अब तक सूरज की रोशनी भी जा चुकी थी परन्तु हमारे भीतर इंसानियत के वजूद की रोशनी पहुँचाकर। मुझे नींद आने लगी थी और मेरी आँखें लग गयी। तभी अचानक से मेरे कानों में कारखाने के बाहर से शोर-गुल की आवाज़ें लगी।

तभी अचानक से मेरी नींद टूटी। मैंने देखा कि मैं अभी दिल्ली के किराए वाले फ्लैट में अपने बिस्तर पर पड़ा हूँ। ओह! तो मैं अभी भी सपना ही देख रहा था।


यह रचना मेरे  स्वप्न पर आधारित है.

Rate this article

Loading...

Post a Comment

© Swayam Raj's Blog. All rights reserved.

Cookies Consent

This website uses cookies to ensure you get the best experience on our website.

Cookies Policy

We employ the use of cookies. By accessing Lantro UI, you agreed to use cookies in agreement with the Lantro UI's Privacy Policy.

Most interactive websites use cookies to let us retrieve the user’s details for each visit. Cookies are used by our website to enable the functionality of certain areas to make it easier for people visiting our website. Some of our affiliate/advertising partners may also use cookies.