रात्रि 10 बजे भोजन करने के बाद पार्क टहलने निकला। एक तो रात हो रही थी और ठंढ भी अपना पांव पसारते जा रही थी। पार्क पहुंचकर देखा तो वहाँ कुछ ही लोग ठंढ से लोहा लेते नजर आए। अधिकतर लोग तो बॉलीबॉल खेल रहे थे और उनसे से कुछ तो बनियान पहनकर खेल रहे थे। वे प्रतिद्वंद्वी टीम के साथ ठंड को भी खुली चुनौती हुए प्रतीत हो रहे थे। मेरी नजर पार्क के कोने में अंधेरे में ईयरफोन को मुंह से चबाते हुए कुछ ख़ुशनुमा जीवों पर पड़ी। हालाँकि उनके आस-पास कोई नही था परंतु अंधेरी रात में पार्क में टहलती कोई आत्मा उनकी बातें न सुन ले इसलिए वो अत्यन्त धीमे स्वर में शायद किसी अन्य जीव से वार्तालाप कर रहे थे। मुझे उन जीवों की भाषा समझ नही आ रही थी । अजी, भाषा को छोड़िए , उस जीव को ही समझना मुश्किल हो रहा था। मैंने सोचा कोई एलियन तो नही है फिर ग़ौर से देखा तो पाया कि उनकी कद-काठी और रंग-रूप इंसान की तरह ही थे। फिर मैंने अपने मस्तिष्क में विचरित करते ज्ञान को पकड़ कर पूछा कि आखिर ये जीव है कौन? ज्ञान ने जवाब दिया- इश्कियापुराण में ऐसे जीवों को 'आशिक़' की संज्ञा दी गयी है। इनका कोई नियत स्थान नही होता बल्कि ये कहीं भी देखे जा सकते है किसी अंधेरे पार्क में, छत पर टहलते हुए, बस में धक्के खाते हुए, रेलगाड़ी की ऊपर के बर्थ पर लेटे हुए और तो और शौचालय के अंदर भी। मुंह में चबाते ईयरफोन ही इनके पहचान-पत्र का काम करती है। ऐसे जीव ईयरफोन चबाते-चबाते चेहरे पर कई तरह की भाव-भंगिमाएँ बनाते है कभी हँसते, कभी नाराज होते तो कभी मनुहार करते। पूरी की पूरी ''कभी खुशी, कभी गम" मूवी इनके चेहरे पर ही चल जाती है। ज्ञान मुझे ये सब बता ही रहा था कि मुझे ये ख़्याल आया कि ये भी शायद रात्रि भोजन करके मस्तिष्क में सैर पर निकला हो इसलिए मैंने इतनी अमूल्य जानकारी के लिए उसे धन्यवाद दिया और शुभ रात्रि कहकर मैं अपने रास्ते हो लिया और वो अपने रास्ते।
- स्वयं राज
